1) यीशु पाँच हज़ार पुरुषों को खिलाता है
यूहन्ना 6:8-13 उसके चेलों में से शमौन पतरस के भाई अन्द्रियास ने उससे कहा, "यहाँ एक लड़का है जिसके पास जौ की पाँच रोटी और दो मछलियाँ हैं; परन्तु इतने लोगों के लिये वे क्या हैं?" यीशु ने कहा, "लोगों को बैठा दो।" उस जगह बहुत घास थी: तब लोग जिनमें पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार की थी, बैठ गए। तब यीशु ने रोटियाँ लीं, और धन्यवाद करके बैठनेवालों को बाँट दीं; और वैसे ही मछलियों में से जितनी वे चाहते थे बाँट दिया। जब वे खाकर तृप्त हो गए तो उसने अपने चेलों से कहा, "बचे हुए टुकड़े बटोर लो कि कुछ फेंका न जाए।" अत: उन्होंने बटोरा, और जौ की पाँच रोटियों के टुकड़ों से जो खानेवालों से बच रहे थे, बारह टोकरियाँ भरीं।
2) लाज़र का पुनरूत्थान परमेश्वर की महिमा करता है
यूहन्ना 11:43-44 यह कहकर उसने बड़े शब्द से पुकारा, "हे लाज़र, निकल आ!" जो मर गया था वह कफन से हाथ पाँव बँधे हुए निकल आया, और उसका मुँह अँगोछे से लिपटा हुआ था। यीशु ने उनसे कहा, "उसे खोल दो और जाने दो।"
प्रभु यीशु के द्वारा किए गए चमत्कारों में से, हमने सिर्फ इन दो को ही चुना है क्योंकि ये उस बात को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त हैं जिसके बारे में मैं यहाँ बात करना चाहता हूँ। ये दोनों चमत्कार वास्तव में बहुत ही आश्चर्यजनक हैं, और अनुग्रह के युग में वे प्रभु यीशु के चमत्कार के सच्चे प्रतिनिधि हैं।
पहले, आओ प्रथम अंश पर एक नज़र डालें: यीशु पाँच हज़ार पुरुषों को खिलाता है।
"पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ" किस प्रकार की धारणा है? पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ आमतौर पर कितने लोगों के लिए पर्याप्त होंगी। यदि तुम लोग एक औसत इंसान की भूख के आधार पर माप करो, तो यह केवल दो व्यक्तियों के लिए ही पर्याप्त होंगी। यही पाँच रोटियों और दो मछलियों की मुख्य धारणा है। हालाँकि, यह इस अंश में लिखा है कि पाँच रोटियों और दो मछलियों ने कितने लोगों को खिलाया? यह पवित्रशास्त्र में इस प्रकार दर्ज हैः "उस जगह बहुत घास थी: तब लोग जिनमें पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार की थी, बैठ गए।" पाँच रोटियों और दो मछलियों की तुलना में, क्या पाँच हज़ार एक बड़ी संख्या है? इसका क्या मतलब है कि यह संख्या इतनी बड़ी थी? मानवीय परिप्रेक्ष्य से, पाँच हज़ार लोगों के बीच पाँच रोटियों और दो मछलियों को बाँटना असंभव होगा, क्योंकि उनके बीच का अंतर बहुत बड़ा है। यहाँ तक कि यदि प्रत्येक व्यक्ति को बस एक छोटा सा टुकड़ा ही मिलता, तब भी यह पाँच हज़ार लोगों के लिए काफी नहीं होता। परन्तु यहाँ, प्रभु यीशु ने एक चमत्कार किया—उसने न केवल पाँच हज़ार लोगों को भरपेट खाने दिया, बल्कि कुछ अतिरिक्त भी था। पवित्रशास्त्र कहता हैः "जब वे खाकर तृप्त हो गए तो उसने अपने चेलों से कहा, 'बचे हुए टुकड़े बटोर लो कि कुछ फेंका न जाए।' अत: उन्होंने बटोरा, और जौ की पाँच रोटियों के टुकड़ों से जो खानेवालों से बच रहे थे, बारह टोकरियाँ भरीं।" इस चमत्कार ने लोगों को प्रभु यीशु की पहचान और स्थिति को देखने दिया, और इसने उन्हें यह देखने दिया कि परमेश्वर के लिए कुछ भी असंभव नहीं है—उन्होंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की सच्चाई को देखा। पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ पाँच हज़ार को खिलाने के लिए पर्याप्त थी, परन्तु वहाँ यदि कोई भोजन ही नहीं होता तो क्या परमेश्वर पाँच हज़ार लोगों को खिला सकता था? निस्संदेह वह खिला सकता था! यह एक चमत्कार था, इसलिए लोगों ने आवश्यक रूप से महसूस किया कि यह समझ से बाहर है और महसूस किया कि यह अविश्वसनीय और रहस्यमय है, परन्तु परमेश्वर के लिए, ऐसी चीज़ करना कोई बड़ी बात नहीं थी। चूँकि परमेश्वर के लिए एक सामान्य चीज़ थी, तो व्याख्या करने के लिए इसे क्यों चुना गया होगा? क्योंकि इस चमत्कार के पीछे जो निहित है वह प्रभु यीशु की इच्छा से युक्त है, जिसे मनुष्यजाति के द्वारा कभी नहीं खोजा गया है।
पहले, आओ यह समझने का प्रयास करें कि ये पाँच हज़ार लोग किस प्रकार के लोग थे। क्या वे प्रभु यीशु के अनुयायी थे? पवित्रशास्त्र से, हम जानते हैं कि वे उसके अनुयायी नहीं थे। क्या वे जानते थे कि प्रभु यीशु कौन है? निश्चित रूप से नहीं! कम से कम, वे यह तो नहीं जानते थे कि जो व्यक्ति उनके सामने खड़ा है वह प्रभु यीशु है, या हो सकता है कि कुछ लोग केवल इतना ही जानते हों कि उसका नाम क्या है, और उन चीज़ों के बारे जो उसने की थीं कुछ जानते हों या उन्होंने कुछ सुना हो। वे मात्र कहानियों से प्रभु यीशु के बारे में उत्सुक थे, परन्तु तुम लोग निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते हो कि वे उसका अनुसरण करते थे, और उसे समझते तो बिल्कुल भी नहीं थे। जब प्रभु यीशु ने इन पाँच हज़ार लोगों को देखा, तो वे भूखे थे और केवल भरपेट भोजन करने के बारे में ही सोच सकते थे, इसलिए यह इस सन्दर्भ में था कि प्रभु यीशु ने उनकी इच्छाओं को तृप्त किया। जब उसने उनकी इच्छाओं को तृप्त कर दिया, तो उसके हृदय में क्या था? इन लोगों के प्रति उसका रवैया क्या था जो केवल भरपेट भोजन करना चाहते थे? इस समय, प्रभु यीशु के विचार और उसके रवैये का परमेश्वर के स्वभाव और सार के साथ संबंध था। इन खाली पेट वाले पाँच हज़ार लोगों का सामना करते हुए जो केवल एक बार भर-पेट भोजन खाना चाहते थे, उसके बारे में उत्सुकता और आशाओं से भरे इन लोगों का सामना करते हुए, प्रभु यीशु ने केवल उन पर अनुग्रह प्रदान करने के लिए इस चमत्कार का उपयोग करने के बारे में सोचा था। हालाँकि, उसने अपनी आशाएँ नहीं बढ़ाई कि वे उसके अनुयायी बन जाएँगे, क्योंकि वह जानता था कि वे मौज-मस्ती करना और पेट भरकर खाना चाहते थे, इसलिए वहाँ जो कुछ उसके पास था उसने उसे बेहतरीन बनाया, और पाँच हज़ार को खिलाने के लिए पाँच रोटियों और दो मछलियों का उपयोग किया। उसने उन लोगों की आँखें खोल दीं जो मनोरंजन का आनंद लेते थे, जो चमत्कार देखना चाहते थे, और उन्होंने अपनी आँखों से उन चीज़ों को देखा जिन्हें देहधारी परमेश्वर पूर्ण कर सकता था। यद्यपि प्रभु यीशु ने उनकी उत्सुकता को सन्तुष्ट करने के लिए कुछ मूर्त चीज़ों का उपयोग किया था, क्योंकि वह पहले से ही अपने हृदय में जानता था कि ये पाँच हज़ार लोग बस एक बढ़िया भोजन करना चाहते थे, इसलिए उसने उन्हें कुछ भी नहीं कहा या उन्हें बिल्कुल भी उपदेश नहीं दिया—उसने बस उन्हें उस चमत्कार को घटित होते हुए देखने दिया। वह इन लोगों से वैसा बर्ताव बिल्कुल नहीं कर सका जैसा वह अपने चेलों के साथ करता था जो सचमुच में उसका अनुसरण करते थे, परन्तु परमेश्वर के हृदय में, सभी प्राणी उसके शासन के अधीन थे, और वह अपनी दृष्टि में सभी जीवधारियों को जब आवश्यक हो परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने की अनुमति देगा। भले ही ये लोग नहीं जानते थे कि वह कौन है या वे उसे समझते नहीं थे, या रोटियों और मछलियों को खाने के बाद भी उनके ऊपर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था या उसके प्रति उनकी कोई कृतज्ञता नहीं थी, फिर भी यह कुछ ऐसा नहीं था जो परमेश्वर के लिए मुद्दा हो—उसने उन्हें परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने के लिए एक अद्भुत अवसर दिया था। कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें उसके सिद्धान्त होते हैं, और वह अविश्वासियों की निगरानी या उनकी सुरक्षा नहीं करता है, और वह विशेष रूप से उन्हें अपने अनुग्रह का आनंद उठाने नहीं देता है। क्या मामला वास्तव में ऐसा ही है? परमेश्वर की नज़रों में, जब तक वे ऐसे जीवित प्राणी हैं जिन्हें उसने स्वयं बनाया है, वह उनका प्रबन्धन और उनकी परवाह करेगा; वह भिन्न तरीके से उनके साथ व्यवहार करेगा, उनके लिए योजना बनाएगा, और उन पर शासन करेगा। इन सभी चीज़ों के प्रति परमेश्वर के विचार और उसका रवैया हैं।
यद्यपि पाँच हज़ार लोग जिन्होंने रोटियों और मछलियों को खाया उनकी प्रभु यीशु का अनुसरण करने की योजना नहीं थी, फिर भी वह उनके प्रति कठोर नहीं था; एक बार जब उन्होंने भर पेट खा लिया, तो क्या तुम लोग जानते हो कि प्रभु यीशु ने क्या किया? क्या उसने उन्हें किसी चीज़ का उपदेश दिया? इसे करने के बाद वह कहाँ चला गया? पवित्रशास्त्र मे दर्ज नहीं है कि प्रभु यीशु ने उनसे कुछ कहा था; जब उसने अपना चमत्कार पूर्ण कर लिया तो वह चुपके से चला गया। तो क्या उसने इन लोगों से कुछ अपेक्षाएँ कीं? क्या कोई नफ़रत थी? इनमें से कुछ भी नहीं था—वह बस इन लोगों पर अब और कोई ध्यान देना नहीं चाहता था जो उसका अनुसरण नहीं कर सकते थे, और इस समय उसका हृदय दर्द में था। क्योंकि उसने मनुष्यजाति की चरित्रहीनता को देखा था और उसने मनुष्यजाति के द्वारा ठुकराया जाना महसूस किया था, और जब उसने इन लोगों को देखा या जब वह उनके साथ था, तो मनुष्य की मूढ़ता और अज्ञानता ने उसे बहुत ही दुःखी कर दिया और उसके हृदय को पीड़ित कर दिया, इसलिए वह इन लोगों को जितना जल्दी हो सके छोड़कर चला जाना चाहता था। प्रभु को अपने हृदय में इनसे कोई अपेक्षाएँ नहीं थीं, वह उन पर कोई ध्यान देना नहीं चाहता था, विशेषकर वह अपनी ऊर्जा को उन पर व्यय नहीं करना चाहता था, और वह जानता था कि वे उसका अनुसरण नहीं करेंगे—इस सब के बावजूद, उनके प्रति उसका रवैया अभी भी बिल्कुल स्पष्ट था। वह बस उनके साथ दयालु बर्ताव करना चाहता था, उन्हें अनुग्रह प्रदान करना चाहता था—अपने शासन के अधीन प्रत्येक प्राणी के प्रति यह परमेश्वर का रवैया था: प्रत्येक प्राणी के लिए, उनके साथ अच्छा बर्ताव करना, उनका भरण पोषण करना, उनका पालन-पोषण करना। जिस मुख्य कारण के लिए प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर था उसके लिए, उसने बहुत ही प्राकृतिक ढंग से स्वयं परमेश्वर के सार को प्रकट किया और इन लोगों के साथ दयालु बर्ताव किया। उसने उनके साथ करुणा और सहिष्णुता वाले हृदय से दयालु व्यवहार किया था। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि इन लोगों ने प्रभु यीशु को किस प्रकार देखा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि किस प्रकार का परिणाम होता, उसने बस हर प्राणी के साथ समस्त सृष्टि के प्रभु के रूप में अपने पद के आधार पर व्यवहार किया। उसने जो प्रकट किया वह था, बिना किसी अपवाद के, परमेश्वर का स्वभाव, और परमेश्वर का स्वरूप। इसलिए प्रभु यीशु ने खामोशी से कुछ किया था, फिर वह खामोशी से चला गया—यह परमेश्वर के स्वभाव का कौन सा पहलू है? क्या तुम लोग कह सकते हो कि यह परमेश्वर के प्रेम के कारण दयालु चीज़ों को करना है? क्या तुम लोग कह सकते हो कि परमेश्वर निःस्वार्थ है? क्या कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा कर सकता है? निश्चित रूप से नहीं! सार रूप में, ये पाँच हज़ार लोग कौन थे जिन्हें प्रभु यीशु ने पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ खिलायी थीं? क्या तुम लोग कह सकते हो कि वे ऐसे लोग थे जो उसके अनुकूल थे? क्या तुम लोग कह सकते हो कि वे सभी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण थे? ऐसा निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि वे प्रभु यीशु के बिल्कुल अनुरूप नहीं थे, और उनका सार बिल्कुल परमेश्वर के विरूद्ध था। परन्तु परमेश्वर ने उनके साथ कैसा बर्ताव किया? उसने परमेश्वर के प्रति लोगों के विरोध को शांत करने के लिए एक तरीके का उपयोग किया था—इस तरीके को "दयालुता" कहते हैं। अर्थात्, यद्यपि प्रभु यीशु ने उन्हें पापियों के रूप में देखा, फिर भी परमेश्वर की नज़रों में वे तब भी उसकी रचना थे, इसलिए उसने इन पापियों के साथ तब भी दयालु व्यवहार किया। यह परमेश्वर की सहिष्णुता है, और यह सहिष्णुता स्वयं परमेश्वर की पहचान और सार से निर्धारित होती है। इसलिए, यह कुछ ऐसा है जिसे परमेश्वर के द्वारा सृजित कोई भी मनुष्य नहीं कर सकता है—केवल परमेश्वर ही इसे कर सकता है।
जब तुम परमेश्वर के विचारों और मनुष्यजाति के प्रति उसके रवैये को सचमुच में समझने में समर्थ होते हो, और जब तुम सचमुच में प्रत्येक प्राणी के प्रति परमेश्वर की भावनाओं और चिंता को समझ सकते हो, तो तुम सृजनकर्ता के द्वारा सृजित हर एक मनुष्य के ऊपर व्यय की गई लगन और प्रेम को समझने में भी समर्थ हो जाओगे। जब ऐसा होगा, तो तुम परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए दो शब्दों का उपयोग करोगे—वे दो शब्द क्या हैं? कुछ लोग कहते हैं "निःस्वार्थ," और कुछ लोग कहते हैं "लोकहितैषी।" इन दोनों में "लोकहितैषी" वह शब्द है जो परमेश्वर के प्रेम की व्याख्या करने के लिए सबसे कम उपयुक्त है। यह ऐसा शब्द है जिसे लोग किसी व्यक्ति के उदार विचारों और भावनाओं का वर्णन करने के लिए उपयोग करते हैं। मैं वास्तव में इस शब्द से घृणा करता हूँ, क्योंकि यह यूँ ही, विवेकहीनता से, और सिद्धांतों की परवाह किए बिना उदारता बाँटने की ओर संकेत करता है। यह मूर्ख और भ्रमित लोगों की अति भावनात्मक अभिव्यक्ति है। जब इस शब्द का उपयोग परमेश्वर के प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है, तो इसमें अपरिहार्य रूप से एक ईशनिंदा का इरादा होता है। मेरे पास दो शब्द हैं जो अधिक उचित रूप से परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करते हैं—वे दो शब्द क्या हैं? पहला है "विशाल" क्या यह शब्द बहुत उद्बोधक नहीं है? दूसरा है "असीम।" इन दोनों शब्दों के पीछे वास्तविक अर्थ है जिन्हें मैं परमेश्वर के प्रेम को दर्शाने के लिए उपयोग करता हूँ। शब्दशः लेने पर, "विशाल" किसी चीज़ के आयतन और क्षमता का वर्णन करता है, पर वह चीज़ कितनी ही बड़ी क्यों न हो—यह कुछ ऐसी है जिसे लोग छू और देख सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह अस्तित्व में है, यह कोई अमूर्त पदार्थ नहीं है, और यह लोगों को वह आभास देती है जो अपेक्षाकृत परिशुद्ध और व्यावहारिक होता है। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि तुम इसे किसी समतल से देखो या त्रिआयामी कोण से; तुम्हें इसके अस्तित्व की कल्पना करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह ऐसी चीज़ है जो वास्तव में अस्तित्व में है। यद्यपि परमेश्वर के प्रेम की व्याख्या करने के लिए "विशाल" शब्द का उपयोग करने से ऐसा महसूस होता है कि उसके प्रेम का परिमाण करना है, हालाँकि, यह इस बात का एहसास भी देता है कि परिमाणनीय नहीं है। मैं कहता हूँ कि परमेश्वर के प्रेम का परिमाण किया जा सकता है क्योंकि उसका प्रेम एक प्रकार से अनस्तित्व नहीं है, और न ही वह किसी पौराणिक कथा से निकलता है। बल्कि, यह कुछ ऐसा है जिसे परमेश्वर की अधीनता में सभी प्राणियों के द्वारा साझा किया जाता है, और यह कुछ ऐसा है जिसका आनंद सभी प्राणियों के द्वारा विभिन्न अंशों में और विभिन्न परिप्रेक्ष्यों से लिया जाता है। यद्यपि लोग इसे देख या छू नहीं सकते हैं, फिर भी यह प्रेम सभी चीज़ों के लिए जीवनाधार और जीवन लाता है क्यों कि यह थोड़ा-थोड़ा करके उनकी जिन्दगियों में प्रकट होता है, और वे परमेश्वर के उस प्रेम को गिनते हैं और उसकी गवाही देते हैं जिसका वे हर क्षण आनंद लेते हैं। मैं कहता हूँ कि परमेश्वर का प्रेम अपरिमाणनीय है क्योंकि परमेश्वर का सभी चीज़ों का भरण-पोषण और पालन-पोषण करने का रहस्य कुछ ऐसा है जिसकी थाह पाना मनुष्यजाति के लिए उतना ही कठिन है, जितना कि सभी चीज़ों के लिए परमेश्वर के विचारों की, और विशेष रूप से उन विचारों की जो मनुष्यजाति के लिए हैं। अर्थात्, उस लहू और आसूँओं को कोई नहीं जानता है जो परमेश्वर ने मनुष्यजाति के लिए बहाये हैं। उस मनुष्यजाति के लिए सृजनकर्ता के प्रेम की गहराई और महत्व को कोई नहीं बूझ सकता है, कोई नहीं समझ सकता है, जिसे उसने अपने हाथों से बनाया। परमेश्वर के प्रेम को अपार के रूप में वर्णन करना इसके अस्तित्व के विस्तार और इसकी सच्चाई की सराहना करने और समझने में लोगों की सहायता करना है। यह इसलिए भी है ताकि लोग "सृजनकर्ता" शब्द के वास्तविक अर्थ को अधिक गहराई से समझ सकें, और ताकि लोग संज्ञा "सृष्टि" के सच्चे अर्थ की एक गहरी समझ प्राप्त कर सकें। "असीम" शब्द सामान्यतः किस चीज़ का वर्णन करता है? यह साधारणतः महासागरों या ब्रह्माण्ड के लिए प्रयुक्त होता है, जैसे असीम ब्रह्माण्ड, या असीम महासागर। ब्रह्माण्ड की व्यापकता और शांत गहराई मनुष्य की समझ से परे है, और यह कुछ ऐसा है जो मनुष्य की कल्पनाओं को ऐसा आकर्षित करता है, कि वे उसके प्रति प्रशंसा से भर जाते हैं। उसका रहस्य और उसकी गहराई दृष्टि के तो भीतर हैं किन्तु पहुँच से बाहर हैं। जब तुम महासागर के बारे में सोचते हो, तुम उसके विस्तार के बारे में सोचते हो—तो वह असीम दिखाई देता है, और तुम उसकी रहस्यमयता और उसकी समग्रता को महसूस कर सकते हो। इसीलिए मैंने परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए "असीम" शब्द का उपयोग किया है। यह लोगों को इस बात को महसूस करने में कि वह कितना बहुमूल्य है, और उसके प्रेम की अगाध सुंदरता को महसूस करने में सहायता करने के लिए है, और यह कि परमेश्वर के प्रेम की ताक़त अनन्त और विस्तृत है। यह उसके प्रेम की पवित्रता, और परमेश्वर की प्रतिष्ठा और उसका अपमान नहीं किए जाने की योग्यता को महसूस करने में उनकी सहायता करता है जो उसके प्रेम के माध्यम से प्रकट होता है। अब क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए "असीम" एक उपयुक्त शब्द है? क्या परमेश्वर का प्रेम इन दो शब्दों "विशाल" और "असीम" के अनुसार खरा उतरता है? बिल्कुल! मानवीय भाषा में, केवल ये दो शब्द ही अपेक्षाकृत उचित हैं, परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के अपेक्षाकृत करीब हैं। क्या तुम लोग ऐसा नहीं सोचते हो? यदि मैं तुम लोगों से परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करवाता, तो क्या तुम लोग इन दो शब्दों का उपयोग करते? बहुत संभव है कि तुम लोग नहीं कर सकते थे, क्योंकि परमेश्वर के प्रेम की तुम लोगों की समझ और सराहना एक समतल परिप्रेक्ष्य तक सीमित है, और त्रि-आयामी स्तर की ऊँचाई तक नहीं पहुँची है। इसलिए यदि मैं तुम लोगों से परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करवाता, तो तुम लोग महसूस करते कि तुम लोगों के पास शब्दों का अभाव है; और यहाँ तक कि तुम लोग अवाक् भी हो जाते। हो सकता है कि आज जिन दो शब्दों के बारे में मैंने बात की है वे तुम लोगों के लिए समझने में कठिन हों, या हो सकता है कि तुम लोग ऐसे ही उससे सहमत न हों। यह बस उस सच्चाई को बता सकता है कि परमेश्वर के प्रेम के बारे में तुम लोगों की सराहना और समझ सतही और एक संकीर्ण दायरे के भीतर है। मैं पहले कह चुका हूँ कि परमेश्वर निःस्वार्थ है—तुम लोगों को निःस्वार्थ शब्द याद है। क्या ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के प्रेम का केवल निःस्वार्थ के रूप में वर्णन किया जा सकता है? क्या यह एक बहुत संकीर्ण दायरा नहीं है? इससे कुछ प्राप्त करने के लिए तुम लोगों को इस मामले पर अधिक मनन करना चाहिए।
ऊपर वह है जो प्रथम चमत्कार से हम परमेश्वर के स्वभाव और उसके सार को देखते हैं। भले ही यह एक कहानी है जिसे लोगों ने कई हज़ार वर्षों से पढ़ा है, इसका एक सामान्य सा कथानक है, और यह लोगों को एक सामान्य घटना को देखने देती है, फिर भी इस सामान्य कथानक में हम कुछ ऐसा देख सकते हैं जो अधिक बहुमूल्य है, जो कि परमेश्वर का स्वभाव और उसका स्वरूप है। ये चीज़ें जो उसका स्वरूप हैं स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करती हैं, और स्वयं परमेश्वर के विचारों की एक अभिव्यक्ति हैं। जब परमेश्वर अपने विचारों को व्यक्त करता है, तो यह उसके हृदय की आवाज़ की अभिव्यक्ति है। वह आशा करता है कि ऐसे लोग होंगे जो उसे समझ सकते हैं, उसे जान सकते हैं, और उसकी इच्छा को बूझ सकते हैं, और वह आशा करता है कि ऐसे लोग होंगे जो उसके हृदय की आवाज़ को सुन सकते हैं और उसकी इच्छा को संतुष्ट करने के लिए सक्रियता से सहयोग कर सकेंगे। और ये चीज़ें जिन्हें प्रभु यीशु ने किया वे परमेश्वर की मूक अभिव्यक्ति थीं।
स्रोत: यीशु मसीह का अनुसरण करते हुए
यह यीशु मसीह का प्रचार पेज़ अभी देखिये, प्रभु यीशु के बारे में और जानने के लिए।
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