मानव जाति के प्रबंधन से सम्बंधित परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के उद्देश्य को जानो

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

 

"मेरी सम्पूर्ण प्रबन्धन योजना, ऐसी योजना जो छः हज़ार सालों तक फैली हुई है, तीन चरणों या तीन युगों को शामिल करती हैः आरंभ में व्यवस्था का युग; अनुग्रह का युग (जो छुटकारे का युग भी है); और अंत के दिनों में राज्य का युग। प्रत्येक युग की प्रकृति के अनुसार मेरा कार्य इन तीनों युगों में तत्वतः अलग-अलग है, परन्तु प्रत्येक चरण में यह मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप है—या बल्कि, अधिक स्पष्ट कहें तो, यह उन छलकपटों के अनुसार किया जाता है जो शैतान उस युद्ध में काम में लाता है जो मैं उसके विरुद्ध शुरू करता हूँ। मेरे कार्य का उद्धेश्य शैतान को हराना, अपनी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता को व्यक्त करना, शैतान के सभी छलकपटों को उजागर करना और परिणामस्वरूप समस्त मानवजाति को बचाना है, जो उसके अधिकार क्षेत्र के अधीन रहती है। यह मेरी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता को दिखाने के लिए है जबकि उसके साथ-साथ ही शैतान की असहनीय करालता को प्रकट करती है। इससे भी अधिक, यह मेरी रचनाओं को अच्छे और बुरे के बीच में अन्तर करना सिखाने के लिए है, यह पहचानना सिखाने के लिए है कि मैं सभी चीज़ों का शासक हूँ, यह देखना सिखाने के लिए है कि शैतान मानवजाति का शत्रु है, व अधम से भी अधम है, दुष्ट है, और अच्छे एवं बुरे, सत्य एवं झूठ, पवित्रता एवं गन्दगी, और महान और हेय के बीच पूर्ण निश्चितता के साथ अंतर करना सिखाने के लिए है। इस तरह, अज्ञानी मानवजाति मेरी गवाही देने में समर्थ हो सकती है कि वह मैं नहीं हूँ जो मानवजाति को भ्रष्ट करता है, और केवल मैं—सृष्टि का प्रभु—ही मानवजाति को बचा सकता हूँ, मनुष्य को उसके आनन्द की वस्तुएँ प्रदान कर सकता हूँ; और उन्हें पता चल जाएगा कि मैं सभी चीज़ों का शासक हूँ और शैतान मात्र उन प्राणियों में से एक है जिनकी मैंने रचना की है और जो बाद में मेरे विरूद्ध हो गया। मेरी छः-हज़ार-सालों की प्रबंधन योजना को तीन अवस्थाओं में विभाजित किया जाता है ताकि निम्नलिखित प्रभाव को प्राप्त किया जाए: मेरी रचनाओं को मेरा गवाह बनने में सक्षम बनाना, मेरी इच्छा को समझना, और यह जानना कि मैं ही सत्य हूँ।"

 

 

"कार्य के तीन चरणों का उद्देश्य समस्त मानवजाति का उद्धार है—जिसका अर्थ है शैतान के अधिकार क्षेत्र से मनुष्य का पूर्ण उद्धार। यद्यपि कार्य के इन तीन चरणों में से प्रत्येक का एक भिन्न उद्देश्य और महत्व है, किन्तु प्रत्येक मानवजाति को बचाने के कार्य का हिस्सा है, और उद्धार का एक भिन्न कार्य है जो मानवजाति की आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है।

 

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जब परमेश्वर के प्रबंधन का सम्पूर्ण कार्य समाप्ति के निकट होगा, तो परमेश्वर प्रत्येक वस्तुओं को उनके प्रकार के आधार पर श्रेणीबद्ध करेगा। मनुष्य रचयिता के हाथों से रचा गया था, और अंत में उसे मनुष्य को पूरी तरह से अपने प्रभुत्व के अधीन अवश्य लौटा देना चाहिए; कार्य के तीन चरणों का यही निष्कर्ष है। …

 

… जब कार्य के तीन चरण समाप्ति पर पहुँचेंगे, तो ऐसे लोगों का समूह बनेगा जो परमेश्वर के प्रति गवाही देते हैं, ऐसे लोगों का एक समूह जो परमेश्वर को जानते हैं। ये सभी लोग परमेश्वर को जानेंगे और सत्य को व्यवहार में लाने में समर्थ होंगे। वे मानवता और समझ को धारण करेंगे और परमेश्वर के उद्धार के कार्य के तीनों चरणों को जानेंगे। यही कार्य अंत में निष्पादित होगा, और यही लोग 6000 साल के प्रबंधन के कार्य का सघन रूप हैं, और शैतान की अंतिम पराजय की सबसे शक्तिशाली गवाही हैं।"

 

"आज हम सब से पहले परमेश्वर के विचारों, युक्तियों, और मनुष्यों की सृष्टि के समय से लेकर अब तक के प्रत्येक कार्य को संक्षिप्त करने जा रहे हैं, और उसने संसार की रचना से लेकर अनुग्रह के युग के आधिकारिक प्रारम्भ तक क्या कार्य किया था उस पर एक नज़र डालने जा रहे हैं। तब हम परमेश्वर के उन विचारों और युक्तियों की खोज करेंगे जो मनुष्यों के लिए अन्जान हैं, और वहाँ से हम प्रबन्धन के लिए परमेश्वर की योजना के क्रम को स्पष्ट कर सकते हैं, और उस सन्दर्भ को विस्तारपूर्वक समझ सकते हैं जिसके तहत परमेश्वर ने अपने प्रबन्धन के कार्य, उसके स्रोत और विकास की प्रक्रिया को बनाया था, और विस्तारपूर्वक समझ सकते हैं कि वह अपने प्रबन्धन कार्य से किस प्रकार के परिणामों को चाहता है—अर्थात्, उसके प्रबन्धन के कार्य का केन्द्र एवं उद्देश्य। इन चीज़ों को समझने के लिए हमें सुदूर, खामोश और शांत समय में जाने की आवश्यकता है जब कोई मनुष्य नहीं था …

 

जब परमेश्वर अपने सेज से उठा, पहला विचार जो उसके मन में आया वह यह थाः एक जीवित, वास्तविक और जीवित मनुष्य को बनाए—ऐसा कोई जिसके साथ वह रहे और उसका निरन्तर साथी बने। वह व्यक्ति उसे सुन सके, और परमेश्वर उस पर भरोसा कर सके और उसके साथ बात कर सके। तब, पहली बार, परमेश्वर ने एक मुट्ठी धूल लिया और सब से पहला जीवित व्यक्ति बनाने के लिए उस का प्रयोग किया जिस की उस ने कल्पना की थी, और तब उस जीवित प्राणी को एक नाम दिया—आदम। एक बार जब परमेश्वर ने इस जीवित और साँस लेते हुए प्राणी को प्राप्त कर लिया था, तो उसने कैसा महसूस किया था? पहली बार, उसे किसी प्रेम करनेवाले, एक साथी को पाने का आनन्द प्राप्त हुआ। उसने पहली बार एक पिता होने काउत्तरदायित्व का भी एहसास किया और उस चिन्ता का भी जो उसके साथ आया था। यह साँस लेता हुआ प्राणी परमेश्वर के लिए प्रसन्नता और आनन्द लेकर आया; उस ने पहली बार सन्तुष्टि का अनुभव किया। यह वह पहली चीज़ थी जिसे परमेश्वर ने बनाया था जिसे परमेश्वर ने अपने विचारों या वचनों से नहीं बनाया था, किन्तु स्वयं अपने दोनों हाथों से बनायाथा। जब इस प्रकार की हस्ती—एक जीवित और साँस लेता व्यक्ति—परमेश्वर के सामने खड़ा हो गया, लहू और माँस से बना हुआ, शरीर और आकार के साथ, और परमेश्वर से बातचीत करने में सक्षम था, उसने एक प्रकार का आनन्द महसूस किया जिसे उसने कभी भी महसूस नहीं किया था। उसने सचमुच में अपनाउत्तरदायित्व का एहसास किया और यह जीवित प्राणी ना केवल उसके हृदय से जुड़ गया था, बल्कि उसकी हर एक छोटी सी हलचल ने उसे छू भी लिया और उसके हृदय को गर्मजोशी से भर दिया था। इस प्रकार जब यह जीवित प्राणी परमेश्वर के सामने खड़ा हुआ तब पहली बार उसने यह विचार किया कि इस तरह के और लोगों को प्राप्त किया जाए। यह घटनाओं का सिलसिला था जो उस पहले विचार के साथ प्रारम्भ हुआ जो परमेश्वर के पास था। परमेश्वर के लिए, यह सभी घटनाएँ पहली बार घटित हो रही थीं, परन्तु इन पहली घटनाओं में, इस से फर्क नहीं पड़ता कि उसने उस समय कैसा महसूस किया था—आनन्द, उत्तरदायित्व, चिन्ता—वहाँ उसके पास कोई नहीं था जिससे वह उन्हें बाँट सके। उस पल के प्रारम्भ से ही, परमेश्वर ने सचमुच में अकेलेपन और उदासी का एहसास किया जिसे उसने पहले कभी भी महसूस नहीं किया था। उसे लगा कि मानव जाति उस के प्रेम और चिन्ता, और मानव जाति के लिए उसकी इच्छा को स्वीकार या समझ नहीं सकते हैं, इसलिए उसने अपने हृदय में दुःख और दर्द का अनुभव किया। यद्यपि उसने इन चीज़ों को मनुष्य के लिए बनाया था, फिर भी मनुष्य इस के प्रति जागरूक नहीं था और उसे नहीं समझा। प्रसन्नता के अलावा, वह आनन्द और संतुष्टि जिसे मनुष्य उस के लिए लेकर आया था वह शीघ्रता से उसके लिए उदासी और अकेलेपन के प्रथम एहसास को भी साथ लेकर आया। ये उस समय परमेश्वर के विचार और एहसास थे। जब परमेश्वर यह सब कुछ कर रहा था, वह अपने हृदय में आनन्द से दुःख की ओर और दुःख से दर्द की ओर चला गया, सब कुछ तनाव में घुल मिल गया। वो बस यही सब चाहता था कि जितना जल्दी हो सके यह व्यक्ति, यह मानव जाति जो कुछ उसके दिल में था उसे जान ले और उसकी इच्छाओं को शीघ्रता से समझ ले। तब, वे उसके अनुयायी बन सकते हैं और उसके साथ एक मेल में हो सकते हैं। वे आगे से परमेश्वर को बोलते हुए नहीं सुनेंगे लेकिन खामोश बने रहेंगे; वे आगे से अनजान नहींहोंगे कि कैसे परमेश्वर के साथ उसके कार्य में जुड़ें; सबसे बढ़कर, वे आगे से परमेश्वर की आवश्यकताओं को लेकर उदासीन लोग नहीं होंगे। ये पहली चीज़ें जिन्हें परमेश्वर ने पूर्ण किया बहुत ही अर्थपूर्ण हैं और उसकी प्रबन्धन की योजना के लिए और आज मनुष्यों के लिए बड़ा मूल्य रखती हैं।

 

सभी चीज़ों और मनुष्यों की सृष्टि करने के बाद, परमेश्वर ने आराम नहीं किया। अपने प्रबन्धन को पूरा करने के लिए वह इन्तज़ार ना कर सका, और ना ही वह ऐसे लोगों को हासिल करने का इन्तज़ार कर सका जिन्हें उस ने मनुष्यों में से सब से ज़्यादा प्यार किया था।

 

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… परमेश्वर मानव जाति के प्रबन्धन, और मनुष्यों के उद्धार की इस घटना को देखता है, जैसे कि यह किसी भी दूसरे चीज़ से कहीं ज़्यादा महत्पूर्ण है। वह इन चीज़ों को केवल अपने मस्तिष्क से नहीं करता है, और ना ही उसे अपने शब्दों से करता है, और विशेष रूप से इन चीज़ों को अकस्मात् ही नहीं करता है—वह यह सब कुछ एक योजना के साथ, एक उद्देश्य के साथ, एक ऊँचे स्तर के साथ, और अपनी इच्छा के साथ करता है। यह साफ है कि मानव जाति को बचाने का यह कार्य परमेश्वर और मनुष्य दोनों के लिए बड़ा महत्व रखता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कार्य कितना ही कठिन है, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाधाएँ कितनी ही बड़ी हैं, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मनुष्य कितने ही कमज़ोर हैं, या मानव जाति का विद्रोही स्वभाव कितना ही गहरा है, इसमें से कुछ भी परमेश्वर के लिए कठिन नहीं हैं। जिस कार्य को वह स्वयं करना चाहता है उसके लिए परीश्रमी प्रयास और प्रबन्ध करते हुए परमेश्वर अपने आप को व्यस्त रखता है। वह सभी चीज़ों को व्यवस्थित भी कर रहा है, और सभी लोगों और वह कार्य जिसे वह पूर्ण करना चाहता है उस पर अपना नियन्त्रण कर रहा है—इसमें से कुछ भी पहले नहीं किया गया था। यह पहली बार था जब परमेश्वर ने इन पद्धतियों को प्रयोग किया था और मानव जाति को बचाने और उस का प्रबन्ध करने की मुख्य परियोजना में एक बड़ी कीमत अदा की थी। जब परमेश्वर इन कार्यों को कर रहा है, वह थोड़ा थोड़ा करके बिना रूके मनुष्यों के सामने अपने कठिन कार्य, जो उसके पास है और जो वह है, उसकी बुद्धि और सर्वसामर्थता, और अपने स्वभाव के हर एक पहलू को प्रदर्शित कर रहा है।उसने अंश अंश करके इन सब को मानव जाति के सामने खुलकर प्रकाशित किया, और उसने इन चीज़ों को ऐसा प्रकाशित और प्रकट किया जैसा कि उसने पहले कभी भी नहीं किया था। अतः, पूरे विश्व में, लोगों के अलावा जिन्हें परमेश्वर बचाने और उन का प्रबन्ध करने का उद्देश्य रखता है, कोई भी ऐसा जीवधारी नहीं था जो परमेश्वर के इतने करीब था, जिस का उस के साथ इतना गहरा रिश्ता हो। अपने हृदय में, वह मानव जाति जिस का वह प्रबन्ध और उद्धार करना चाहता है, सब से महत्वपूर्ण है, और वह सब से बढ़कर इस मानव जाति को मूल्य देता है; और भले ही उसने उनके लिए एक बड़ी कीमत चुकाई है, और भले ही उनके द्वारा उसे लगातार चोट पहुँचाया जाता है और उस की अनाज्ञाकारिता की जाती है, फिर भी वह उन्हें कभी भी नहीं छोड़ता है और लगातार बिना थके बिना कोई शिकवा या शिकायत के अपने कार्य में लगा रहता है। यह इसलिए है क्योंकि वह जानता है कि बहुत जल्द या देर से ही मनुष्य एक ना एक दिन उस की बुलाहट के प्रति जागरूक हो जाएँगे और उस के वचनों से अभिभूत हो जाएँगे, और यह पहचानेंगे कि वह सृष्टि का प्रभु है, और उस की पक्षमें वापस आ जाएँग। …"

 

"परमेश्वर का प्रबंधन इस प्रकार से है: मानवजाति को शैतान की अधीनता में देना-एक ऐसी मानवजाति जो नहीं जानती कि परमेश्वर क्या है, रचयिता क्या है, परमेश्वर की आराधना किस प्रकार की जानी है, और परमेश्वर के अधीन होना क्यों आवश्यक है-और शैतान की भ्रष्टता को उन्मुक्त लगाम देना। और फिर कदम दर कदम, परमेश्वर शैतान के हाथों से मनुष्य को बचाता है, जब तक कि मनुष्य पूरी तरह से परमेश्वर की आराधना न करे और शैतान को अस्वीकार न कर दे। यही परमेश्वर का प्रबंधन है। यह सब कुछ एक मिथककथा लगती है; और यह सब कुछ हैरान कर देने वाला लगता है। लोगों को लगता है कि ये एक मिथक कथा है, और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उन्हें इसका भान नहीं है कि पिछले हज़ारों सालों में लोगों के साथ कितना कुछ हुआ है, और इस बात को तो वे बिल्कुल नहीं जानते कि इस ब्रह्मांड के विस्तार में अब तक कितनी कहानियां घट चुकी हैं। इसके अलावा, ऐसा इसलिए कि वे इस बात को नहीं समझ सकते कि भौतिक संसार के परे एक अधिक आश्चर्यजनक अधिक भययुक्त संसार का अस्तित्व है, परन्तु उनकी नश्वर आंखें देखने से उन्हें वंचित करती हैं। इंसान को वह अबोधगम्य लगती है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य को मानवजाति के लिए परमेश्वर के द्वारा किए गए उद्धार के कार्य की महत्ता और परमेश्वर के प्रबंधकारणीय कार्य की महत्ता की समझ नहीं है, और वह यह नहीं समझता कि परमेश्वर अंततः मनुष्य को कैसा बनते देखना चाहता है। क्या शैतान के दोष से रहित आदम और हव्वा के समान? नहीं! परमेश्वर का प्रबंधन लोगों के एक ऐसे समूह को प्राप्त करने के लिए है जो उसकी आराधना करे और उसके अधीन रहे। ये मानवजाति शैतान के द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी है, परन्तु अब शैतान को पिता के तौर पर नहीं देखती; वह शैतान के बुरे चेहरे को पहचानता है और उसे अस्वीकार करता है और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने के लिये उसके सामने आता है। वह जानता है कि क्या बुरा है, और जो पवित्र है उसके विपरीत वह कैसा दिखता है, और वह परमेश्वर की महानता को पहचानता है और शैतान की दुष्टता को भी समझता है। इस प्रकार की मानवजाति अब शैतान के लिए कार्य नहीं करती है, या उसकी आराधना नहीं करती है, या शैतान को प्रतिष्ठित नहीं करती है। इसका कारण यह है कि यह एक ऐसे लोगों का समूह है जो वास्तव में परमेश्वर को प्राप्त हो गए हैं। यही परमेश्वर की मानवजाति के प्रबंधन की महत्ता है। …

 

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परमेश्वर का प्रेम और दया उसके प्रबंधकारणीय कार्य के हर ब्यौरे में व्याप्त होती है और इससे निरपेक्ष कि लोग परमेश्वर की भली मंशा को समझ पा रहे हैं या नहीं, वह अभी भी अथक रूप से अपने कार्य में लगा हुआ है जो वह पूरा करना चाहता है। इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर के प्रबंधन को लोग कितना समझ रहे हैं, परमेश्वर जो कार्य कर रहा है, उसके लाभ और सहायता को हर व्यक्ति भलीभाँति समझ सकता है। भले ही आज तुम परमेश्वर के द्वारा प्रदत्त प्रेम या जीवन को महसूस नहीं कर पा रहे हो, परन्तु जब तक तुम परमेश्वर को न छोड़ो, और सत्य को खोजने के अपने इरादों को न छोड़ो, तो एक न एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब परमेश्वर की मुस्कान तुम पर प्रगट होगी। क्योंकि परमेश्वर के प्रबंधकारणीय कार्य का लक्ष्य शैतान के चंगुल में फंसी हुई मानवजाति को उबारना है, न कि मानवजाति को छोड़ना है जो शैतान के द्वारा भ्रष्ट हो चुकी है और परमेश्वर के विरूद्ध खड़ी हुई है।"

 

"इसके बावजूद कि जो कुछ परमेश्वर करता है या वे माध्यम जिनके द्वारा वह इसे करता है, उस कीमत, या उसके उद्देश्य के बावजूद, उसके कार्यों का उद्देश्य बदलता नहीं है। उसका उद्देश्य है कि वह मनुष्य के भीतर परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर की अपेक्षाओं, और मनुष्य के लिए परमेश्वर की इच्छा का काम करे; दूसरे शब्दों में, उसका उद्देश्य है कि मनुष्य के भीतर वह सब कुछ किया जाए जिसके विषय में परमेश्वर विश्वास करता है कि ये उसके चरणों के अनुसार रचनात्मक हैं, उसका उद्देश्य है कि मनुष्य को सक्षम बनाया जाए ताकि वह परमेश्वर के हृदय को समझे और परमेश्वर की हस्ती को बूझे, और उसे अनुमति दिया जाए ताकि वह परमेश्वर की संप्रभुता एवं इंतज़ामों को माने, और इस प्रकार मनुष्य को अनुमति दिया जाए कि वह परमेश्वर के भय और बुराई के परित्याग को हासिल करे—जो भी वह करता है उसमें यह सब परमेश्वर के उद्देश्य का एक पहलु है। दूसरा पहलु यह है कि, क्योंकि शैतान एक महीन परत है और परमेश्वर के कार्य में एक मोहरा है, इसलिए मनुष्य को अकसर शैतान को दे दिया जाता है; यह वह साधन है जिसे परमेश्वर उपयोग करता है ताकि शैतान की परीक्षाओं एवं हमलों के बीच लोगों को शैतान की दुष्टता, कुरूपता एवं घिनौनेपन को देखने की अनुमति दे, इस प्रकार लोग शैतान से घृणा करने लग जाते हैं और उसे पहचान जाते हैं जो नकारात्मकता है। यह प्रक्रिया उन्हें अनुमति देती है कि वे धीरे धीरे स्वयं को शैतान के नियन्त्रण से, और शैतान के आरोपों, हस्तक्षेप एवं आक्रमणों से स्वतन्त्र करें—जब तक, परमेश्वर के वचन के कारण, परमेश्वर के विषय में उनके ज्ञान एवं आज्ञाकारिता के कारण, और परमेश्वर में उनके विश्वास एवं भय के कारण, वे शैतान के हमलों के ऊपर विजय न पा लें, और शैतान के आरोपों के ऊपर विजय न पा लें; केवल तभी उन्हें पूरी तरह से शैतान के प्रभुत्व से छुड़ा लिया जाएगा। लोगों के छुटकारे का अर्थ है कि शैतान को हरा दिया गया है; इसका अर्थ है कि वे आगे से शैतान के मुंह का भोजन नहीं हैं—उन्हें निगलने के बजाय, शैतान ने उन्हें छोड़ दिया है। यह इसलिए है क्योंकि ऐसे लोग सच्चे हैं, क्योंकि उनके पास विश्वास, आज्ञाकारिता एवं परमेश्वर के प्रति भय है, और क्योंकि उन्होंने शैतान के साथ पूरी तरह से नाता तोड़ लिया है। वे शैतान को लज्जित करते हैं, वे शैतान को डरपोक बना देते हैं, और वे पूरी तरह से शैतान को हरा देते हैं। परमेश्वर का अनुसरण करने में उनकी आस्था ने, और परमेश्वर के भय एवं आज्ञाकारिता ने शैतान को हरा दिया है, और शैतान को पूरी तरह से उन्हें छोड़ देने के लिए मजबूर किया है। केवल ऐसे ही लोगों को सचमुच में परमेश्वर के द्वारा हासिल किया गया है, और मनुष्य को बचाने के लिए यही परमेश्वर का चरम उद्देश्य है।"

 

"मनुष्य का प्रबंधन करना मेरा कार्य है, और मेरे द्वारा उसे जीत लिया जाना और भी अधिक कुछ चीज़ है जो तब नियत की गई थी जब मैंने संसार की रचना की थी। हो सकता है कि लोग नहीं जानते हों कि अंत के दिनों में मैं उन्हें पूरी तरह से जीत लूँगा और हो सकता है कि वे इस बारे में भी अनजान हों कि मानवजाति में से विद्रोही लोगों को जीत लेना ही शैतान को मेरे द्वारा हराने का प्रमाण है। परन्तु जब मेरे शत्रु मेरे साथ संघर्ष में शामिल हुए, तो मैंने उसे पहले से ही बता दिया था मैं उन सभी को जिन्हें शैतान ने बंदी बना लिया था और अपनी संतान बना लिया था और उसके घर की निगरानी करने वाले उसके वफादार सेवकों को जीतने वाला बनूँगा। … मानवजाति, जो बहुत पहले से शैतान के पैर के नीचे रौंद दी गयी है, शुरू से ही शैतान की छवि की अभिनेता—उससे भी अधिक, शैतान का मूर्त रूप रही है, जो उस साक्ष्य के काम आ रही है "जो जोर से और स्पष्ट रूप से शैतान की गवाही देती है"। ऐसी मानवजाति, ऐसे अधम मैल का ढेर, या इस भ्रष्ट मानव परिवार की ऐसी संतान, कैसे परमेश्वर की गवाही दे सकती हैं? मेरी महिमा कहाँ से आती है? कोई मेरी गवाही के बारे में कहाँ शुरू कर सकता है? क्यों कि उस शत्रु ने, जो मानवजाति को भ्रष्ट करके मेरे विरोध में खड़ा है, पहले ही मानव जाति को दबोच लिया है—उस मानव जाति को जिसे मैंने बहुत समय पहले बनाया था और जो मेरी महिमा और मेरे जीवन से भरी थी—और उन्हें दूषित कर दिया है। इसने मेरी महिमा को छीन लिया है और इसने मनुष्य को जिस चीज़ से भर दिया है वह शैतान की कुरूपता की मिलावट वाला ज़हर, और अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष के फल का रस है। … मैं मनुष्यों से अपनी महिमा को वापिस ले लूँगा, अपनी गवाही को जो मनुष्यों के बीच अस्तित्व में है, और उस सब को जो कभी मेरा था और जिसे मैंने बहुत पहले मानवजाति को दे दिया था, वापस ले लूँगा—मैं मानवजाति को पूरी तरह से जीत लूँगा। हालाँकि, तुम्हें पता होना चाहिए, कि जिन मनुष्यों का मैंने सृजन किया था वे पवित्र मनुष्य थे जो मेरी छवि और मेरी महिमा को धारण करते थे। वे शैतान से संबंधित नहीं थे, न ही वे इससे कुचले जाने के अधीन थे, बल्कि, शैतान के ज़रा से भी ज़हर से मुक्त, शुद्ध रूप से मेरी ही अभिव्यक्ति थे। और इसलिए, मैं मानवजाति को जानने देता हूँ कि मैं सिर्फ़ उसे चाहता हूँ कि जो मेरे हाथों द्वारा सृजित है, जो पवित्र व्यक्ति हैं, जिन्हें मैं प्रेम करता हूँ और जो किसी अन्य सत्त्व से संबंधित नहीं हैं। इससे अतिरिक्त, मैं उनमें आनंद लूँगा और उन्हें अपनी महिमा के रूप में मानूँगा। हालाँकि, जो मैं चाहता हूँ यह वह मानवजाति नहीं है जिसे शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, जो आज शैतान से संबंधित है, और जो अब मेरा मूल सृजन नहीं है। क्योंकि मैं अपनी उस महिमा को वापस लेना चाहता हूँ जो मानव संसार में विद्यमान है, इसलिए मैं शैतान को पराजित करने में अपनी महिमा के प्रमाण के रूप में, मानवजाति के शेष उत्तरजीवियों पर पूर्ण विजय प्राप्त करूँगा। मैं सिर्फ़ अपनी गवाही को, अपनी आनंद की वस्तु के रूप में, अपना स्वयं का निश्चित रूप धारण करने के रूप में लेता हूँ। यह मेरी इच्छा है।"

 

"परमेश्वर ने मानवजाति का सृजन किया, उसे पृथ्वी पर रखा, और उसकी आज के दिन तक अगुआई की। उसने तब मानवजाति को बचाया और मानवजाति के लिये पापबली के रूप में कार्य किया। अंत में उसे अभी भी अवश्य मानवजाति को जीतना चाहिए, मानवजाति को पूर्णतः बचाना चाहिए और उसे उसकी मूल समानता में पुनर्स्थापित करना चाहिए। यही वह कार्य है जिसमें वह आरंभ से लेकर अंत तक संलग्न रहा है—मनुष्य को उसकी मूल छवि में और उसकी मूल समानता में पुनर्स्थापित करना। वह अपना राज्य स्थापित करेगा और मनुष्य की मूल समानता पुनर्स्थापित करेगा, जिसका अर्थ है कि वह पृथ्वी पर अपने अधिकार को पुनर्स्थापित करेगा, और समस्त प्राणियों के बीच अपने अधिकार को पुर्नस्थापित करेगा। शैतान के द्वारा भ्रष्ट किए जाने पर मनुष्य ने, परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी शत्रु बनते हुए, अपना धर्मभीरू हृदय गँवा दिया है और उस प्रकार्य को गँवा दिया जो परमेश्वर के सृजित प्राणियों में से एक के पास होना चाहिए। मनुष्य शैतान के अधिकार क्षेत्र के अधीन रहा और उसने उसके आदेशों का पालन किया; इस प्रकार, अपने प्राणियों के बीच कार्य करने का परमेश्वर के पास कोई मार्ग नहीं था, और तो और अपने प्राणियों से परमेश्वर का भय प्राप्त करने में असमर्थ था। मनुष्य परमेश्वर के द्वारा सृजित था, और उसे परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए थी, परंतु मनुष्य ने वास्तव में परमेश्वर की ओर पीठ फेर दी और शैतान की आराधना की। शैतान मनुष्य के हृदय में प्रतिमा बन गया। इस प्रकार, परमेश्वर ने मनुष्य के हृदय में अपना स्थान खो दिया, जिसका मतलब है कि उसने मनुष्य के सृजन के अपने अर्थ को खो दिया, और इसलिए मनुष्य के सृजन के अपने अर्थ को पुनर्स्थापित करने के लिए उसे अवश्य मनुष्य की मूल समानता को पुनर्स्थापित करना चाहिए, और मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से छुड़ाना चाहिए। शैतान से मनुष्य को वापस प्राप्त करने के लिए, उसे अवश्य मनुष्य को पाप से बचाना चाहिए। केवल इसी तरह से वह धीरे-धीरे मनुष्य की मूल समानता को पुनर्स्थापित कर सकता है और मनुष्य के मूल प्रकार्य को पुनर्स्थापित कर सकता है, और अंत में अपने राज्य को पुनर्स्थापित कर सकता है। अवज्ञा के उन पुत्रों को अंतिम रूप से इसलिए भी नष्ट किया जाएगा ताकि मनुष्य को बेहतर ढंग से परमेश्वर की आराधना करने दी जाए और पृथ्वी पर बेहतर ढंग से जीने दिया जाए। चूँकि परमेश्वर ने मानवों का सृजन किया है, इसलिए वह मनुष्य से अपनी आराधना करवाएगा; चूँकि वह मनुष्य के मूल प्रकार्य को पुनर्स्थापित करना चाहता है, इसलिए वह उसे पूर्ण रूप से और बिना किसी मिलावट के पुनर्स्थापित करेगा। अपना अधिकार पुनर्स्थापित करने का अर्थ है, मनुष्य से अपनी आराधना करवाना और मनुष्य से अपना आज्ञापालन करवाना; इसका अर्थ है कि वह अपनी वजह से मनुष्य को जीवित रखवाएगा, और अपने अधिकार की वजह से अपने शत्रुओं को नष्ट करवाएगा; इसका अर्थ है कि वह अपने हर अंतिम भाग को मानवजाति के बीच और मनुष्य द्वारा किसी भी प्रतिरोध के बिना बनाए रखेगा। जो राज्य वह स्थापित करना चाहता है, वह उसका स्वयं का राज्य है। जिस मानवजाति की वह इच्छा करता है वह है जो उसकी आराधना करती है, जो पूर्णतः उसकी आज्ञा का पालन करती है और उसकी महिमा रखती है। यदि वह भ्रष्ट मानवजाति को नहीं बचाता है, तो मनुष्य का सृजन करने का उसका अर्थ व्यर्थ हो जाएगा; मनुष्यों के बीच उसका अब और अधिकार नहीं रहेगा, और पृथ्वी पर उसके राज्य का अस्तित्व अब और नहीं रह पाएगा। यदि वह उन शत्रुओं का नाश नहीं करता है जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं, तो वह अपनी संपूर्ण महिमा को प्राप्त करने में असमर्थ होगा, न ही वह पृथ्वी पर अपने राज्य की स्थापना करने में समर्थ होगा। ये परमेश्वर का कार्य पूरा होने के प्रतीक हैं और उसकी महान उपलब्धियों की पूर्णता के प्रतीक हैं: मानवजाति में से उन सबको सर्वथा नष्ट करना जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं, और जो पूर्ण किए जा चुके हैं उन्हें विश्राम में लाना। जब मनुष्यजाति को उसकी मूल समानता में पुनर्स्थापित कर दिया जाता है, जब मानवजाति अपने संबंधित कर्तव्यों को पूरा कर सकती है, अपने स्वयं के स्थान को सुरक्षित रख सकती है और परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं का पालन कर सकती है, तो परमेश्वर पृथ्वी पर लोगों के एक समूह को प्राप्त कर चुका होगा जो उसकी आराधना करते हैं, वह पृथ्वी पर एक राज्य स्थापित कर चुका होगा जो उसकी आराधना करता है। उसके पास पृथ्वी पर अनंत विजय होगी, और जो उसके विरोध में है वे अनंतकाल के लिए नष्ट हो जाएँगे। इससे मनुष्य का सृजन करने का उसका मूल अभिप्राय पुनर्स्थापित हो जाएगा; इससे सब चीजों के सृजन का उसका मूल अभिप्राय पुनर्स्थापित हो जाएगा, और इससे पृथ्वी पर उसका अधिकार, सभी चीजों के बीच उसका अधिकार और उसके शत्रुओं के बीच उसका अधिकार भी पुनर्स्थापित हो जाएगा। ये उसकी संपूर्ण विजय के प्रतीक हैं। इसके बाद से मानवजाति विश्राम में प्रवेश करेगी और ऐसे जीवन में प्रवेश करेगी जो सही मार्ग का अनुसरण करता है। मनुष्य के साथ परमेश्वर भी अनंत विश्राम में प्रवेश करेगा, और एक अनंत जीवन में प्रवेश करेगा जो परमेश्वर और मनुष्य द्वारा साझा किया जाता है। पृथ्वी पर से गंदगी और अवज्ञा ग़ायब हो जाएगी, वैसे ही पृथ्वी पर से विलाप ग़ायब हो जाएगा। उन सभी का अस्तित्व पृथ्वी पर नहीं रहेगा जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। केवल परमेश्वर और वे जिन्हें उसने बचाया है ही शेष बचेंगे; केवल उसकी सृष्टि ही बचेगी।"

 

"आज के दिन तक अपना 6000 वर्षों का कार्य करते हुए, परमेश्वर ने अपने बहुत से क्रिया-कलापों को पहले ही प्रकट कर दिया है, मुख्य रूप से शैतान को पराजित करने और समस्त मानवजाति का उद्धार करने का कार्य। वह स्वर्ग की हर चीज़, पृथ्वी के ऊपर की हर चीज़ और समुद्र के अंदर की हर चीज़ और साथ ही पृथ्वी पर परमेश्वर के सृजन की हर अंतिम वस्तु को परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को देखने और परमेश्वर के सभी क्रिया-कलापों को देखने की अनुमति देने के लिए इस अवसर का उपयोग करता है। वह मानवजाति पर अपने सभी क्रिया-कलापों को प्रकट करने हेतु शैतान को पराजित करने के अवसर पर कब्ज़ा करता है, और लोगों को उसकी स्तुति करने और शैतान को पराजित करने वाली उसकी बुद्धि को प्रोत्साहित करने में समर्थ बनने की अनुमति देता है। पृथ्वी पर, स्वर्ग में, और समुद्र के भीतर की प्रत्येक वस्तु उसकी महिमा लाती है, और उसकी सर्वशक्तिमत्ता की स्तुति करती है, उसके सभी क्रिया-कलापों की स्तुति करती है, और उसके पवित्र नाम की जय—जयकार करती है। यह शैतान की पराजय का उसका का प्रमाण है; यह शैतान पर उसकी विजय का प्रमाण है; और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, यह उसके द्वारा मानवजाति के उद्धार का प्रमाण है। परमेश्वर की समस्त सृष्टि उसके लिए महिमा लाती है, अपने शत्रु को पराजित करने और विजयी होकर लौटने के लिए उसकी स्तुति करती है और एक महान विजयी राजा के रूप में उसकी स्तुति करती है। उसका उद्देश्य केवल शैतान को पराजित करना ही नहीं है, और इसलिए उसका कार्य 6000 वर्ष तक जारी रहा। वह मानवजाति को बचाने के लिए शैतान की पराजय का उपयोग करता है; वह अपने सभी क्रिया-कलापों को प्रकट करने के लिए और अपनी सारी महिमा को प्रकट करने के लिए शैतान की पराजय का उपयोग करता है। वह महिमा प्राप्त करेगा, और स्वर्गदूतों का समस्त जमघट भी उसकी सम्पूर्ण महिमा को देखेगा। स्वर्ग में संदेशवाहक, पृथ्वी पर मनुष्य, और पृथ्वी पर समस्त सृष्टि सृजनकर्ता की महिमा को देखेगी। यही वह कार्य है जो वह करता है। स्वर्ग में और पृथ्वी पर उसकी सृष्टि, सभी उसकी महिमा को देखेंगे। और वह शैतान को सर्वथा पराजित करने के बाद विजयोल्लास के साथ वापस लौटेगा, और मानवजाति को अपनी प्रशंसा करने देगा।इस प्रकार वह इन दोनों पहलुओं को सफलतापूर्वक प्राप्त करेगा। अंत में समस्त मानवजाति उसके द्वारा जीत ली जाएगी, और वह ऐसे किसी को भी मिटा देगा जो उसका विरोध करेगा या विद्रोह करेगा, अर्थात्, उन सभी को मिटा देगा जो शैतान से संबंधित हैं।"

 

"सभी लोगों को पृथ्वी पर मेरे कार्य के उद्देश्य को समझने की आवश्यकता है, अर्थात्, मेरे कार्य का अंतिम उद्देश्य और इससे पहले कि इसे पूरा किया जा सके कौन सा स्तर मुझे इस कार्य में अवश्य प्राप्त कर लेना चाहिए। यदि, आज के दिन तक मेरे साथ चलते रहे लोग यह नहीं समझते हैं कि मेरा समस्त कार्य किस बारे में है, तो क्या वे मेरे साथ व्यर्थ में नहीं चल रहे हैं? जो लोग मेरा अनुसरण करते हैं उन्हें मेरी इच्छा जाननी चाहिए। मैं हज़ारों सालों से पृथ्वी पर कार्य करता आ रहा हूँ, और आज के दिन तक अभी भी मैं अपना कार्य इसी तरह से कर रहा हूँ। यद्यपि मेरे कार्य में असाधारण रूप से अनगिनत चीजें शामिल हैं फिर भी इस कार्य का उद्देश्य अपरिवर्तित बना रहता है, ठीक जैसे कि, उदाहरण के लिए, भले ही मैं मनुष्य के प्रति न्याय और ताड़ना से भर हुआ हूँ, फिर भी जो मैं करता हूँ वह अभी भी उसे बचाने के वास्ते है, अपने सुसमाचार को बेहतर ढंग से फैलाने के वास्ते है और एक बार मुनष्य को पूर्ण बना दिए जाने पर अन्यजाति देशों के बीच अपने कार्य को आगे विस्तारित करने के लिए है। …इस अंतिम युग में, मैं अपने नाम को अन्यजातियों के बीच गौरवान्वित करवाऊँगा, और अपने कर्मों को अन्यजाति देशों के सामने दिखवाऊँगा जिससे वे मुझे मेरे कर्मों के कारण सर्वशक्तिमान कह सकते हैं, और इसे इतना बना सकते हैं कि मेरे वचन शीघ्र ही घटित हो जाएँ। मैं सभी लोगों को ज्ञात करवाऊँगा कि मैं केवल इस्राएलियों का ही परमेश्वर नहीं हूँ, बल्कि अन्यजातियों का भी हूँ, यहाँ तक कि उनका भी हूँ जिन्हें मैंने शाप दिया है। मैं सभी लोगों को यह देखने दूँगा कि मैं समस्त सृष्टि का परमेश्वर हूँ। यह मेरा सबसे बड़ा कार्य है, अंत के दिनों के लिए मेरी कार्य योजना का उद्देश्य है, और अंत के दिनों में पूरा किया जाने वाला एकमात्र कार्य है।"

 

स्रोत: यीशु मसीह का अनुसरण करते हुए

 

परमेश्वर के दैनिक वचन” खंड अंत के दिनों में सभी मनुष्यों के लिए परमेश्वर के वचन को साझा करता है, जिससे ईसाईयों को परमेश्वर के बारे में अधिक जानने में मदद मिलती है।

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